छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ज़ैन धर्म(Jainism) का तीव्र विकास हुआ।
ज़ैन धर्म भगवान को तीर्थकर कहा गया।
प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में माना जाता है ऋषभदेव अयोध्या के राजा थे संभवनाथ का जन्म श्रावस्ति तथा पदमप्रभ का जन्म कौशांबी में माना जाता है।
दूसरे जैन तीर्थकर अजीतनाथ का उल्लेख यूज़ुर्ववेद में हुआ है।
23 वे तीर्थकर पार्श्वनाथ व 24 वे तीर्थकर महावीर स्वामी को छोडकर अन्य सभी तीर्थकरो को एतिहासिकता संदिग्ध है।
पार्श्वनाथ के अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था पार्श्वनाथ वैदिक कर्मकाण्ड व देववाद के कटु आलोचक थे। उन्होने प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष का अधिकारी बताया तथा नारियो को भी अपने संप्रदाय मे प्रवेश दिया। पार्श्वनाथ का काल महावीर स्वामी से 200 वर्ष पूर्व का माना जाता है।
पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में 850 ई. पूर्व के आस-पास हुआ। इसके पिता अश्वसेन काशी के शासक थे।
महावीर स्वामी ज़ैन धर्म के 24 वे व अंतिम तीर्थकर तथा ज़ैन धर्म के वास्तविक संस्थापक माने जाते है।
महावीर स्वामी का एक परिचय (Jainism)
जन्म – 599 ई. पूर्व
जन्म स्थान – कुंडग्राम ( वैशाली, बसाढ़ के निकट वज्जीसंघ का गणराज्य )
पिता – सिद्धार्थ ( ज्ञात्रिक कुल के प्रधान )
माता – त्रिशला ( लिच्छवि शासक चेटक की बहन )
पत्नी – यशोदा
पुत्री – प्रियदर्शनी ( श्वेतावर मत के अनुसार)
गृहत्याग – 30 वर्ष की उम्र में
ज्ञान – 42 वर्ष की उम्र में
स्थान – जृंभिक ग्राम ऋजुपालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नींचे
प्रथम शिष्य – जामाली
मृत्यु – 527 ई. पूर्व पावापुरी में ( राजगृह के निकट पावा वर्तमान नाम पोखरपुर ) ज़ैन धर्म में सांसारिक तृष्णा व बंधन से मुक्ति को मोक्ष कहा जाता है मोक्ष जीव का अंतिम लक्ष्य है। कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है, कर्मफल से विमुक्ति ही निर्वाण प्राप्ति का साधन है। ज़ैन धर्म के अनुसार कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है। ये त्रिरत्न है-
1. सम्यक दर्शन ( श्रद्धा ) 2. सम्यक ज्ञान 3. सम्यक आचरण
सत् में विश्वास सम्यक श्रद्धा है सद्रूप का शंकाविहीन और वासत्विक ज्ञान सम्यक ज्ञान है। जीव का समस्त इंद्रिय विषयो में अनासक्त होना, उदासीन होना, सम दु:ख-सुख होना ही सम्यक आचरण है।
– ज़ैन धर्म के 6 द्रव्य –
1. जीव 2.पुद्गल ( भौतिक तत्व ) 3. धर्म
4. अधर्म 5. आकाश 6. काल
– ज़ैन धर्म में ज्ञान के तीन स्रोत है –
1. प्रत्यक्ष 2. अप्रत्यक्ष 3. शब्द ( तीर्थकरो के वचन )
मोक्ष के बाद व्यक्ति को जीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है तथा वह अनंत चतुष्ट्य को प्राप्त कर लेता है।
– अनंत चतुष्ठ्य –
1. अनंत ज्ञान 2. अनंत दर्शन 3. अनंत वीर्य
4. अनंत सुख
– ज़ैन धर्म में 2 संप्रदाय है –
1. श्वेताम्बर 2. दिगम्बर
300 ई. पूर्व में मगध में अकाल पड़ने पर स्थूलभ्रद के नेतृत्व में मगध में ही निवास करने वाले व श्वेत वस्त्र धारण करने वाले ज़ैन भिक्षु श्वेतांबर कहलाए।
अकाल के समय छठे ज़ैन आचार्य ( थेर ) भद्रबाहु के नेतृत्व में मगध छोडकर श्रवणबेलगोला ( कर्नाटक ) जाने वाले ज़ैन दिगम्बर कहलाये। दिगम्बर अपने को शुद्ध बताते थे व नग्न रहते थे। ये दक्षिणी जैनी कहलाए।
दिगम्बर मतावलंबी भद्रबाहु की शिक्षाओ को ही प्रामाणिक मानते है।
उत्तर भारत मे जैन धर्म के दो प्रमुख केंद्र उज्जैन व मथुरा थे। पूर्वी भारत मे पुंड्रवर्धन व दक्षिण भारत मे कर्नाटक दिगम्बर संप्रदाय के प्रमुख क्रेंद्र थे।
ऋग्वेद मे केवल दो तीर्थकरो ऋषभदेव व अरिष्ट्नेमी का उल्लेख है।
जैन ग्रंथ उत्त्राध्य्यनसूत्र के अनुसार 22वें तिर्थकर अरिष्टनेमि भागवत धर्म के वासुदेव कृष्ण के समकालीन थे एवं श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे।
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है।
अधिकांश जैन धर्म ग्रंथ अर्धमागधी भाषा मे लिखे गए है। कुछ ग्रंथ अपभ्रंश मे भी लिखे गए है।
जैन मुनि हैमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का पहला व्याकरण तैयार किया।
कलिंग का राजा खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था । जैन मूर्ति पुजा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य हाथीगुंफा अभिलेख है।
जैन भिक्षु भिक्षुणी सल्लेखना द्वारा शरीर त्यागते है। सल्लेखना का अर्थ है ‘उपवास द्वारा शरीर त्यागना’।
जिन शब्द का अर्थ है विजेता ।
जैन धर्म अहिंसा पर विशेष वाल देता है।
यह पुनर्जन्म, आत्मा एवं कर्म को मानता है।
वर्ण व्यवस्था का विरोधी नही है।
ईश्वर को संसार का कर्ता नही मानता इसलिए अनिश्वरवादी है।
वेदो को नही मानता इसलिए नास्तिक दर्शन है।
जैन ग्रंथ भगवती सूत्र मे महावीर के जीवन का वर्णन है। इसी मे 16 महाजनपदों का भी उल्लेख है।
:- जैन संगति -(Jainism)
– प्रथम जैन महासभा –
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल मे 300 ई. पू. मे पाटलीपुत्र मे जैन धर्म उपदेशो के संकलन हेतु एक महासभा का आयोजन किया गया। इसमे जैन धर्म के प्रधान भाग 14 पूर्वो ( पर्वो ) का स्थूलभद्र ने 12 अंगो मे सम्पादन किया। श्वेतांबरों ने 12 अंगो को स्वीकार किया।
इस महासभा का दक्षिण के दिगम्बर जैनो ( भद्रबाहु आदि ) ने बहिष्कार किया।
इसमे जैन धर्म श्वेतांबर व दिगम्बर संप्रदायो मे बंट गया।
:- द्वितीय जैन महासभा –
512 – 513 ई. मे देवर्धिगणी ( क्षमाश्रमण ) के नेतृत्व मे गुजरात मे वल्लभी मे द्वितीय जैन महासभा का आयोजन हुआ। द्वितीय जैन संगीति का मूल उद्देश्य जैन धर्म के मूल पाठो को एकत्र कर उन्हे आगामों का रूप देना था। इसमे धर्म ग्रंथो को अंतिम रूप से अर्धमागधी भाषा मे संकलित कर लिपिवद्ध किया गया तथा 12 उपांग जोड़े गए। प्रथम सभा मे संकलित 12वा अंग इस समय खो गया था।
हैमचन्द्र सूरी ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम की रचना की जिसका परिशिष्ठ, परिशिष्ठपर्व के नाम से जाना जाता है।
जैन तीर्थ स्थल – Jain Temple
श्रवणबेलगोला ( कर्नाटक मे चन्द्रगिरि पहाड़ी पर स्थित ) मे गंग शासक राजमल्ल चतुर्थ के मंत्री चामुंड राय ने 983 ई. मे गोमतेश्वर ( बाहुवली जो प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के पुत्र थे ) की 57 फुट ऊंची विशाल प्रतिमा का निर्माण करवाया। गौमतेश्वर या बाहुबली का महामस्तकाअभिषेक समारोह आयोजित किया।
उदयगिरि की बाघ गुफा से कुमार गुप्त प्रथम के समय ( 425 ई. ) का एक लेख मिला है जिसके अनुसार शंकर नामक एक व्यक्ति ने जैन तीर्थकर की मूर्ति का निर्माण करवाया।
वास्तुकला व तेजपाल ने भी 1230 ई. मे दिलवाड़ा मे नैमिनाथ के मंदिर का निर्माण करवाया।
हस्तिनापुर कुरुवंश की राजधानी एवं यहा पर शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ तीर्थकरो ने जन्म लिया।
सम्मेद शिखर ( झारखंड ) यहाँ 20 तीर्थकरो को निर्वाण प्राप्त हुआ। इस पर्वत पर पारसनाथ चोटी है। जिस पर पारसनाथ को निर्वाण प्राप्त हुआ।
गिरनार गुजरात यहाँ 21वे तीर्थकर नेमीनाथ को निर्वाण प्राप्त हुआ।
मांगितुंगी महाराष्ट्र यहाँ एक पत्थर से निर्मित 108 फीट की आदिनाथ की मूर्ति है।
एलोरा से भी कई ज़ैन गुफाये मिली है। इनमे इंद्रसभा की गुफा प्रसिद्ध है।
अर्बुदगिरी ( आबू ), शत्रुंजयगिरि, चन्द्र्गिरी और ऊर्जायन्त्गिरी जैनो के पावन स्थल है।
पारसनाथ,पावापुरी,राजगृह ( सभी बिहार ) से भी ज़ैन स्थापत्य के उदाहरण मिले है।